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ऐसे श्लोक जिन्हे पढ़ते तो बहुत हैं, पर जीवन में कम ही उतारते हैं

चरैवेति..चरैवेति..
चरैवेति..चरैवेति..
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संस्कृत पढ़ने वाले या उससे अनुराग रखने वाले लोगों का मानना है किसी भी अच्छे कार्य का प्रारंभ मंगलाचरण से होना चाहिए। इसी बात को मानते हुए “जागरण जंक्शन” पर अपने ब्लॉग के प्रारंभ में मंगल आचरण अपनाते हुए भर्तृहरि द्वारा विरचित नीतिशतक से कतिपय श्लोकों का हिंदी सरलार्थ सहित प्रस्तुतिकरण दे रहा हूं। हालांकि पूरा नीतिशतक ही अच्छी बातों से भरा हुआ है, उनमें से दो चार कुसुमों का यहां संकलन है, जो हमारे जीवन में यदि कुछ हद तक भी उतर जाएं तो जीवन की गाड़ी ठीक-ठाक गति से चलती रहेगी।  आप सभी पाठकों की शुभकामना के साथ आगे भी सक्रिय रहूंगा, इसी आशा के साथ…..शुभास्ते पन्थानः सन्तु (आपके मार्ग कल्याणकारी होंवे).

केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला

न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजा:।

वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते

क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्।।

सरलार्थ- पुरुष की शोभा बाहु में केयूर पहनने से नहीं होती, न ही चन्द्रमा जैसे उज्ज्वल हार पहनने से; स्नान, चन्दन लेप, पुष्प श्रृंगार से अथवा केश सॅवारने से भी नहीं; किन्तु केवल शुद्ध वाणी से ही शोभा होती है। क्योंकि भूषण तो घिसकर नष्ट हो जाते हैं लेकिन वाणी ही सदा के लिए भूषण है, जो नष्ट नहीं होती।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं

विद्या भोगकरी यश:सुखकरी विद्या गुरूणां गुरु:।

विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं

विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्या विहीन: पशु:।।

सरलार्थ- विद्या ही मनुष्य का सर्वोत्तम रूप तथा गुप्त धन है। विद्या ही भोग्य पदार्थों को देती है; यश और सुख को देने वाली तथा गुरुओं की भी गुरु है। विद्या ही विदेश में बन्धुजनों की भाँति सुख-दु:ख में सहायक होती है और यही भाग्य है। राजाओं के द्वारा विद्या की ही पूजा होती है, धन की नहीं। अत: विद्या से हीन पुरुष पशु के समान है। तात्पर्य यह है कि विद्या अवश्य प्राप्त करनी चाहिए।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:।

ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

सरलार्थ- जिनके पास विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, गुण व धर्म नहीं है, मनुष्य के रूप में पृथिवी पर भार-स्वरूप वे पशु की भाँति (व्यर्थ) विचरण करते हैं।।

साहित्यसङ्गीतकलाविहीन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन:।

तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।।

सरलार्थ- जो मनुष्य साहित्य, संगीत तथा कलाओं को नहीं जानता, वह पूँछ और सींग से रहित पशु ही है, वह घास को न खाते हुए भी जीवित रहता है, यह अन्य पशुओं का परम सौभाग्य है।।

क्षान्तिश्चेद्वचनेन किं किमरिभि: क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां

ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधै: किं फलम्।

किं सर्पैर्यदिदुर्जना: किमु धनैर्विद्याऽनवद्या यदि

व्रीडा चेत्किमु भूषणै: सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम्।।

सरलार्थ- जिसके पास सहनशक्ति है, उसको मीठे वचनों से क्या प्रयोजन है। जिसको क्रोध है उसे शत्रुओं का क्या काम है। यदि पास में कोई स्वजातीय हो तो अग्नि की कोई आवश्यकता नहीं है, यदि पास में मित्र हैं तो उत्तम औषधियों का काम नहीं। यदि निकट में दुर्जन हैं तो सर्पों की आवश्यकता नहीं। यदि अपने पास प्रशंसनीय विद्या हो तो धन से क्या काम ? यदि लज्जा है तो बाहरी आभूषणों की आवश्यकता नहीं और यदि सुन्दर कवित्व-शक्ति है तो राज्य से क्या प्रयोजन है।

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरै: सह।

न मूर्खजनसम्पर्क: सुरेन्द्रभवनेष्वपि।।

सरलार्थ- वनचारी जन्तुओं के साथ दुर्गम पर्वतीय स्थानों और जंगलों में रहना अच्छा है। परन्तु इन्द्रभवन में भी मूर्खों के साथ रहना कल्याणप्रद नहीं है।।

जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।

चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं सत्संगति: कथय किं न करोति पुंसाम्।।

सरलार्थ- सत्संगति बुद्धि की जड़ता हरती, सत्य कहलवाती, मान बढ़ाती है और पाप को दूर करती है। चित्त को प्रसन्न करती और दिशाओं में यश फैलाती है। इस प्रकार सज्जन पुरुषों की संगति मनुष्यों का क्या नहीं करती।

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